एक कविता पशुओं के सम्मान में
मुझमें भी है भावना,
मैं भी हूँ एक जीव,
न इंसान हूँ, न कोई ख़ास,
पर मेरी भी है एक आस।
मुझे भी लगती है भूख,
मेरे भी हैं आँसू,
पर इंसान देखे तो जैसे
मैं कोई बेजान जंतु।
मेरे भी हैं दो हाथ,
जो पंजों में हैं सजे,
पर ये हाथ नहीं उठते
सिर्फ़ दर्द को सहे।
मुझे भी प्यास लगती है,
मैं कहाँ पानी ढूँढूँ?
नाले में गंदगी है,
मैं साफ़ पानी कहाँ से लूँ?
मुझे भी चाहिए सुकून,
चाहिए जीवन का मान,
क्यों तुमने बाँटा हमको,
ये कैसा है इंसाफ़?
मैं भी भगवान की रचना,
तुम भी हो उनकी संतान,
फिर क्यों ये भेदभाव,
क्यों नहीं समझते इंसान?
मुझे भी चाहिए प्यार,
मुझे भी चाहिए सम्मान,
क्यों मेरे हिस्से में आता है
सिर्फ़ दर्द और अपमान?
इंसान का दिल पत्थर है,
या आँखें हैं अंधी,
मेरे दर्द को अनदेखा कर,
जैसे दुनिया ही बंधी।
इंसान की क्रूरता बढ़ रही,
प्रकृति का हो रहा शोषण,
कैसे जियूँ मैं इस दुनिया में,
जहाँ प्यार का भी है संकोच?
मुझमें भी है भावना,
मैं भी हूँ एक जीव,
बस चाह है थोड़ी-सी इंसानियत,
थोड़ी-सी सहानुभूति,
मेरे भी जीवन की,
थोड़ी-सी महत्ता, थोड़ी-सी ख़ुशी।
लेखाक :- आयुष सिंह परिहार 🤍🕊️
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